कांग्रेस ने देश को सदा जागीर ही समझा
भारत कांग्रेस का दंश पीढ़ियों से क्यों झेल रहा है? — एक सार्थक विवेचना
भारतीय राजनीति का जब भी विवेचन किया जाता है, कांग्रेस पार्टी का नाम केंद्र में होता है — और हो भी क्यों न, इसने स्वतंत्रता संग्राम से लेकर स्वतंत्र भारत के पहले कई दशकों तक देश पर एकछत्र शासन किया। लेकिन एक बुनियादी प्रश्न यह है कि क्या कांग्रेस ने देश को दिशा दी या दिशाहीन किया? क्या इसके लंबे शासनकाल का लाभ जनता को मिला, या पीढ़ियों तक भारत ने इस पार्टी के कुशासन और वंशवाद का दंश झेला?
1. राजनीति से सेवा नहीं, सत्ता साधना
कांग्रेस के शुरुआती वर्षों में उसके नेताओं के भीतर सेवा की भावना थी — गांधी, पटेल, बोस जैसे नेताओं का उद्देश्य था भारत की मुक्ति और सामाजिक उत्थान। लेकिन स्वतंत्रता के बाद जब पार्टी सत्ता में आई, तो सेवा का स्थान सत्ता लोलुपता ने ले लिया। नेहरू से शुरू हुआ वंशवाद, इंदिरा गांधी तक आते-आते एक एकाधिकारवादी सोच में बदल गया। लोकतंत्र के नाम पर जनता को बार-बार छला गया।
2. एकाधिकार और आपातकाल का कलंक
1975 का आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला अध्याय था। यह दिखाता है कि सत्ता की रक्षा के लिए कांग्रेस किस हद तक जा सकती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुचली गई, न्यायपालिका को नियंत्रित किया गया, और आम नागरिकों को मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया।
3. विकास की जगह वोट बैंक की राजनीति
कांग्रेस ने वर्षों तक तुष्टिकरण की नीति अपनाई। गरीबों और अल्पसंख्यकों के नाम पर घोषणाएं हुईं, योजनाएं बनीं, लेकिन जमीनी सच्चाई यह रही कि करोड़ों लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। पार्टी ने गरीबी हटाओ जैसे नारों को सिर्फ चुनावी औजार की तरह इस्तेमाल किया।
4. भ्रष्टाचार की परंपरा
बोफोर्स से लेकर 2G, कोयला घोटाले तक कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के आरोपों की लंबी सूची है। इन कांडों ने न केवल देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया, बल्कि जनता का शासन तंत्र से भरोसा भी तोड़ा।
5. वंशवाद बनाम योग्यता
कांग्रेस की सबसे बड़ी विफलता रही है कि इसने योग्यता की जगह परिवारवाद को प्राथमिकता दी। एक पार्टी जो पूरे देश का नेतृत्व करने का दावा करती है, वह एक परिवार से परे नहीं सोच पाती। इससे पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र खत्म हुआ और यह एक वंश आधारित संगठन बनकर रह गई।
निष्कर्ष:
भारत ने कांग्रेस को कई मौके दिए, पर हर बार जनता को सपने दिखाए गए, समाधान नहीं। पीढ़ियों ने इसकी नीतिगत विफलताओं, भ्रष्टाचार, तुष्टिकरण और वंशवाद का दंश झेला है। आज जब भारत आत्मनिर्भरता, डिजिटल क्रांति और वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है, तब यह जरूरी है कि हम अतीत की गलतियों से सबक लें और ऐसे राजनीतिक ढाँचों को नकारें जो जनता नहीं, परिवार के हितों को प्राथमिकता दें।
भारत की पीढ़ियाँ अब दंश नहीं, दिशा चाहती हैं।