# वसिष्ठ जिन्होंने दिया था राजसत्ता पर अंकुश का विचार
#न राजा नेव राज्यम च ,न दडियों न च दांडिक:
किसी भी भारतवासी के सामने आप वसिष्ठ का नाम ले लें तो वह एकदम बोल उठेगा, वही तो, दशरथ के कुलगुरु, जिन्होंने उनके चार बेटों राम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न को शिक्षा-दीक्षा प्रदान की थी। वही तो. जिन्होंने तब दशरथ को समझाकर ढाढस बंधाया था कि अगर मुनि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को राक्षसों का वध करने अपने आश्रम ले जाना चाहते हैं. तो कोमल हृदय पिता होने के बावजूद दशरथ को घबराना नहीं चाहिए और अपने दोनों बेटों को उनके साथ भेज देना चाहिए। वही तो, जिन्होंने तब कोशल देश का शासन बड़ी मुस्तैदी से चलाया, जब दशरथ का देहांत हो चुका था, राम ने वन में वापस लौटने से मना कर दिया था और भरत ने बाकायदा राजतिलक करवाकर राजसिंहासन पर बैठने की बजाय राम की चरणपादुका को वहाँ बिठा खुद नंदिग्राम से राजकाज चलाने की औपचारिकता भर पूरी की थी। जी हाँ, वही वसिष्ठ । जिनका संबंध बस्ती जनपद अर्थात वशिष्ठ नगर से है .राजाराम विराजमान हो गए,पर महर्षि वशिष्ठ का बढ़नी गांव और पुत्रेष्टि यज्ञस्थलोपर किसी का दृश्य पात क्यों नहीं हो रहा.
जो कुछ ज्यादा जानकार होंगे वे यह बताना भी नहीं भूलेंगे कि वसिष्ठ और विश्वामित्र में जमकर संघर्ष हुआ था, जिसके रंग-बिरंगे विवरण पुराण ग्रंथों में मिल जाते हैं। कहेंगे कि वसिष्ठ के पास एक कामधेनु गाय थी, जो हर इच्छा पूरी कर सकती थी, जिसकी एक वत्सा थी- नंदिनी। कामधेनु तथा उसकी वत्सा-गाय नंदिनी की अद्भुत विशेषताओं से विश्वामित्र इतने प्रभावित और आकर्षित हुए कि उन्होंने वसिष्ठ से कहा कि मुझे इनमें से एक गाय दे दो। वसिष्ठ ने मना करदिया तो दोनों ऋषियों में जमकर युद्ध हुआ, जिसमें वसिष्ठ के सौ बेटे मारे गए, पर विश्वामित्र के मन की इच्छा पूरी नहीं हो सकी। जी हाँ, वही वसिष्ठ। जिन्हें वसिष्ठ के बारे में कुछ और भी ज्यादा मालूम होगा तो वे वसिष्ठ-विश्वामित्र संघर्ष को विभिन्न वर्षों और जातियों के संघर्ष के रूप में पेश करने को उतावले होंगे और कहेंगे कि पुराने जमाने में जब मनुष्य की जाति का निर्धारण जन्म से नहीं कर्म से होता था, तब भी ब्राह्मण के कुल में पैदा हुए वसिष्ठ ने क्षत्रिय के कुल में पैदा हुए विश्वामित्र को विद्वान, ज्ञानी, मंत्रकार होने के बावजूद ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया। खुद को उन्होंने ब्रह्मर्षि कहलाया तो विश्वामित्र को उन्होंने पहले तो राजर्षि ही माना बाद में ब्रह्मर्षि भी मान लिया।
जी हाँ, ये वही वसिष्ठ हैं, जिनके बारे में हमारी स्मृति में इतना कुछ लिखा-बिछा पड़ा है। और अगर इतना कुछ हम भारतवासियों को वसिष्ठ के बारे में याद है, पता है, तो जाहिर है कि हमारे देश के इतिहास में उनकी एक महत्त्वपूर्ण जगह रही है। पर जिस तरह की चीजें हमें वसिष्ठ के बारे में पता है, क्या उतने भर से वे इस देश की इतिहास-यात्रा के मील-पत्थर साबित हो जाते हैं? यानी क्या इन यादों के विवरण में से उनका कोई ऐसा योगदान झलकता है, जिसने हमारे देश के विचार को, यहाँ के समाज की सोच को, सभ्यता को आगे बढ़ाया हो ? वसिष्ठ ने दशरथ से कहा कि राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दो, उन्होंने दशरथ की मृत्यु के बाद कोशल राज्य को सँभाला, विश्वामित्र से कामधेनु को लेकर उनके युद्ध हुए, उन्होंने विश्वामित्र को, शुरु में ऋषि तो माना, पर ब्रह्मर्षि नहीं, सिर्फ राजर्षि माना तो इस तमाम कथामाला में ऐसा क्या है कि वसिष्ठ को भारत राष्ट्र का विराट् या विशिष्ट पुरुष माना जाए ? है और चूँकि यकीनन है, इसलिए हमें वसिष्ठ के बारे में थोड़ा गहरे जाकर और ज्यादा सच्चाइयाँ टटोलनी होंगी।
वसिष्ठ की कुछ ऐसी खास और बार-बार उल्लेख के लायक कोई विशेष देन थी कि हमारे जन के बीच क्रमशः उनकी प्रतिष्ठा मनुष्य से बढ़कर देव-पुरुष के रूप में होने लगी। माना जाने लगा कि वसिष्ठ जैसा महान् व्यक्ति सामान्य मनुष्य तो हो नहीं सकता। उसे तो लोकोत्तर होना चाहिए। इसलिए उन्हें ब्रह्मा का मानस-पुत्र मान लिया गया और उनका विवाह दक्ष नामक प्रजापति की पुत्री ऊर्जा से बताया गया, जिससे उन्हें एक पुत्री और सात पुत्र पैदा हुए। अपने महान् नायकों को दैवी महत्त्व देने का यह भारत का अपना तरीका है, जिसे आप चाहें तो पसंद करें, चाहें तो न करें, पर तरीका है। यही वह तरीका है, जिसके तहत तुलसीदास को वाल्मीकि का रूप तो विवेकानंद को शंकराचार्य की तरह शिव का रूप मान लिया जाता है। ऐसे ही मान लिया गया कि वसिष्ठ जैसा महाप्रतिभाशाली व्यक्ति ब्रह्मा के अलाव किसका पुत्र हो सकता है? पर चूंकि ब्रह्मा का परिवार नहीं है. इसलिए मानस होने की कल्पना कर ली गई।
खैर! ठीक उसी मुकाम पर आकर हमें यह मान लेना चाहिए कि वसिष्ठ के जितनी तरह की खट्टी-मोठी कथाएँ और रंग-बिरंगे विवरण हमें याद हैं. वे सभी एक वसिष्ठ के नहीं अलग-अलग वसिष्ठों के हैं. यानी वसिष्ठ वंश में पैदा हर अलग-अलग मुनिवसिष्ठों के हैं। वसिष्ठ एक जातिवाची नाम है और आजकल भी जैसे कोई जातिवादी नाम पीडी-दर-पीढी व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहकर चलता रहता है. वैसी ही परंपरा काफी पुराने काल से चलती आ रही है। वे वसिष्ठ थे जिन्होंने दशरथ से ऋष्यश्रृंग की देख-रेख में पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया, राम आदि का नामकरण किया, शिक्षा-दीक्षा दी और राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए दशरथ का मन बनाया। पर इनका अलग से नाम नहीं मिलता। जिन वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र का भयानक संघर्ष हुआ, वे शक्ति वसिष्ठ थे। जिन वसिष्ठ ने विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया, उनका नाम देवराज वसिष्ठ था। ये सब वसिष्ठ अलग-अलग पीढ़ियों के हैं।कथा वाचकों और वाम इतिहास कारण ने सभी विशिष्ठों को ही दशरथ का ही गुरु माना, यद्यपि सृष्टि से ही कोई न कोई वशिष्ठ राज सत्ता पर धर्म सत्ता की महत्ता का अंकुश लगाता ही रहा है.
तो वसिष्ठ पर पाठकों के साथ अपना संक्षिप्त संवाद खत्म करने की शुरुआत इस सवाल से की जाए कि वसिष्ठ नाम आखिर कैसे पड़ा ? वसिष्ठ में व कोस शब्द है, जिसका अर्थ है रहना, और निवास, प्रवास, वासी आदि शब्दों में वास का अर्थ इसी आधार पर निकलता है। वरिष्ठ, गरिष्ठ, ज्येष्ठ, कनिष्ठ आदि में जिस ष्ठ का प्रयोग है, उसका अर्थ है सबसे ज्यादा, यानी सुपरलेटिव डिग्री। वरिष्ठ यानी सर्वाधिक श्रेष्ठ, कनिष्ठ यानी सर्वाधिक छोटा, ज्येष्ठ यानी सर्वाधिक बड़ा तो वसिष्ठ यानी सर्वाधिक पुराना निवासी। जो वसिष्ठ, जो आद्य वसिष्ठ, जो सबसे पुराने वसिष्ठ कोशल देश की राजधानी अयोध्या में आकर बसे, वे स्मृति परंपरा के मुताबिक हिमालय से वहाँ आए थे और अयोध्या में आकर रहने से पहले का विवरण चूँकि हमारे ग्रंथों में खास मिलता नहीं, इसलिए उन्हें ब्रह्मा का पुत्र मानने की श्रद्धा से भरी तो कभी ऋग्वेद के मुताबिक 'वरुण-उर्वशी' की संतान मानने की रोचक कथाएँ मिल जाती हैं।
संभवतः बस्ती जनपद ही उनका गुरुकुल था,जिसके वे कुलपति थे और अयोध्याधिपति के पुत्रों को सांसारिक,बौद्धिक ज्ञान महर्षि वशिष्ठ ने बस्ती जनपद के अपने पैतृक गांव बढ़नी से ही दिया होगा, जहां उनका एक मंदिर भी है.
बताते हैं वशिष्ठ हिमालय वासी भी थे,सवाल है कि वसिष्ठ हिमालय से नीचे क्यों उतरे होंगे ? क्यों अयोध्या में आकर रहने लगे? इन छोटे से सामान्य सवालों में ही वसिष्ठ का वह अमूल्य योगदान छिपा पड़ा है, जिसने इस देश की विचारधारा को एक नया मोड़ दे दिया। हम जान चुके हैं कि सामाजिक अव्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए ही जन समाज ने मनु को अपना पहला राजा बनाया और मनु ने समाज और शासन के व्यवस्थित संचालन के लिए नियमों की व्यवस्था दी। देश के इतिहास में यह एक नया प्रयोग था, जहाँ पूरे समाज ने अपनी सारी शक्तियाँ, अपना पूरा वर्तमान और अपने तमाम सपने एक राजा के हाथ में सौंप दिए थे, जिसके बाद राजा का अतिशक्तिशाली बन जाना स्वाभाविक था।
यह एक नई बात थी, जहाँ एक व्यक्ति पूरे समाज के वर्तमान और भाग्य का विधाता बन गया। आद्य वसिष्ठ को, जो हिमालय में ही रहते थे और जिनके नाम का ठीक-ठीक पता नहीं, ठीक ही खतरा महसूस हुआ कि इतना शक्तिशाली और ऐश्वर्य-संपन्न राजा उन्मत्त हो सकता है। राजदंड कहीं उन्मत्त और आक्रामक न हो जाए, इसलिए उस पर नियंत्रण आवश्यक है और जाहिर है कि ऐसे राजदंड पर नियंत्रण करने के लिए कोई बड़ा राजदंड काम नहीं आ सकता था, बल्कि ज्ञान का, त्याग का, अपरिग्रह का, वैराग्य का, अहंकार-हीनता का ब्रह्मदंड ही राजदंड को नियमित और नियंत्रित कर सकता था। वसिष्ठ के अलावा यह काम और किसी के वश का नहीं था, यह वसिष्ठ ने अपने आचरण से ही आगे चलकर सिद्ध कर दिया। हिमालय से उतरकर वसिष्ठ जब अयोध्या आए, तब मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य कर रहे थे। इक्ष्वाकु ने उन्हें अपना कुलगुरु बनाया और तब से एक परंपरा की शुरुआत हुई कि राजबल का नियमन ब्रह्मबल से होगा और एक शानदार तालमेल और संतुलन का सूत्रपात शासन व्यवस्था में ही नहीं, समाज में भी हुआ। यहाँ तक कि क्रमशः एक सामाजिक आदर्श बन गया कि जब भी रथ पर जा रहे राजा को सामने स्नातक या विद्वान् मिल जाए तो राजा को चाहिए कि वह अपने रथ से उतरे, प्रणाम करे और आगे बढ़े।
एक बड़े विचार या आदर्श की स्थापना जितनी मुश्किल होती है, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल उस पर आचरण होता है और अगर वसिष्ठों का खूब सम्मान इस देश की परंपरा में है तो जाहिर है कि इस आदर्श का पालन करने में वसिष्ठों ने अनेक कष्ट भी सहे होंगे। कुछ कष्ट तो हमारे इतिहास में बाकायदा दर्ज हैं। एक कथा है-अयोध्या के ही एक राजा सत्यव्रत त्रिशंकु ने जब अपने मरणशील शरीर के साथ ही स्वर्ग जाने की पागल जिद पकड़ ली और अपने कुलगुरु देवराज वसिष्ठ से वैसा यज्ञ करने को कहा तो वसिष्ठ ने साफ इनकार कर दिया और उसे अपने पद से हाथ धोना पड़ा। पर जब इसी वसिष्ठ ने एक बार यज्ञ में नरबलि का कर्मकांड करना चाहा तो फिर विश्वामित्र ने उसे रोका और देवराज की काफी थू-थू हुई। इसके बाद जब वसिष्ठों को वापस हिमालय जाने को मजबूर होना पड़ा तो हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने उनका आश्रम जला डाला। फिर से वापस लौटे वसिष्ठों में दशरथ और राम के कुलगुरु वसिष्ठ इतने बड़े ज्ञानी, शांतशील और तपोनिष्ठ साबित हुए कि उन्होंने परंपरा से उनसे शत्रुता कर रहे विश्वामित्रों पर अखंड विश्वास कर राम और लक्ष्मण को उनके साथ वन भेज दिया। उसी परंपरा में एक मैत्रावरुण वसिष्ठ हुए जिनके 97 सूक्त ऋग्वेद में मिलते हैं, जो ऋग्वेद का करीब-करीब दसवाँ हिस्सा है। इतना विराट् बौद्धिक योगदान करनेवाले कुल में एक शक्ति वसिष्ठ हुए जिनके पास कामधेनु थी, जिसका दुरुपयोग कर अहंकार पालने का मौका उन्होंने कभी भी नहीं दिया। पर घमंडी विश्वामित्रों को ऐसी गाय न मिले, इसके लिए अपने पुत्रों का बलिदान देकर भी एक भयानक संघर्ष उन्होंने विश्वामित्रों के साथ किया।
जो लोग सिर्फ राजाओं के कारनामों और देशों की लड़ाइयों में ही इतिहास ढूँढ़ने को इतिश्री मान लेते हैं, उनके लिए वसिष्ठ का भला क्या महत्त्व हो सकता है ? कुछ नहीं, इसलिए हम भारतीय, सिर्फ हम भारतीय ही समझ सकते हैं कि कितना कठिन काम उन वसिष्ठों ने किया और कितना नया और विलक्षण योगदान उन्होंने भारत की सभ्यता के विकास में किया। जाहिर है कि इसका श्रेय उन आद्य वसिष्ठ को जाता है, जिन्होंने राजदंड के ऊपर ब्रह्मदंड का संयम रखने का विचार इस देश को दिया, जिस पर यह देश आज तक आचरण कर रहा है।इसीलिए रास्ता पर अंकुश वही वशिष्ठ लगा सकता है जो निर्भीक और निर्वैर भी होगा.