राजेंद्र नाथ तिवारी
ऋग्वेद का पहला मंत्र "अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म्। होता॑रं रत्न॒धात॑मम्॥" है। इसका अर्थ है, "मैं अग्नि देवता की स्तुति करता हूँ, जो यज्ञ के पुरोहित, देवताओं के पुजारी और रत्नों के दाता हैं।"
दस से आठ हजार साल पहले : ,हमारे देश की सबसे पुरानी कविता ,वेद
वैदिक और लौकिक साहित्य में बहुत अंतर
वाल्मीकि लौकिक साहित्य के आदिकवि
कविता (वेद) को हमारे देश में आज दस से आठ हजार साल पहले लिखा गया . अर्थात् आज दस से आठ हजार साल पहले जिस कविता का पहला पद रचा गया हो. उस वेद को कविता कहना क्या अजीब नहीं लगता? जरूर लगता है और हैरानी नहीं होगी कि मनुष्य जाति के सबसे पुराने उपलब्ध साहित्य यानी वेदों को कविता कहने पर कुछ विद्वान लोग हमें अज्ञानी या नास्तिक तक कह देता चाहें। पर इस तरह के आरोपी विशेषणों को झेलने के बावजूद यह कहना कितना सुखद, सम्मान से भरपूर और गौरवपूर्ण लगता है कि वेद इस देश की सबसे पुरानी कविता है। किसी कृति को कविता कहने से बड़ा सम्मान और क्या हो सकता है।
और फिर जब खुद वेदों के रचयिता अपनी रचना को काव्य यानी कविता कह रहे हों तो क्या रोमांच नहीं हो जाता? ठीक ऐसे ही एक विलक्षण पद में लिखा है-
पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति।
देवताओं की इस कविता को तो देखो, न यह कभी नष्ट होती है और न कभी इसका असर कमजोर पड़ता है।
इस तरह की अद्भुत और इतनी पुरानी कविता के बारे में जब कोई आजकल की भाषा और शब्दावली में बात करता है तो कुछ वेदभक्तों को इसमें वेदों के अपमान की बू आ सकती है। पर हमारी तकलीफ यह है कि अगर हम इतने पुराने साहित्य को भी आज की भाषा के लहजे में नहीं रखेंगे तो न आज के तार्किक दिमाग को चैन मिलेगा और न आज के श्रद्धालु मन को शांति मिलेगी। स्वाभाविक ही है कि मनुष्य का रुझान हर पुरानी वस्तु या व्यक्ति के प्रति ज्यादा से ज्यादा मिथकीय और रहस्य से भरा हो जाता है।
इस तरह की अद्भुत और इतनी पुरानी कविता के बारे में जब कोई आजकल की भाषा और शब्दावली में बात करता है तो कुछ वेदभक्तों को इसमें वेदों के अपमान की बू आ सकती है। पर हमारी तकलीफ यह है कि अगर हम इतने पुराने साहित्य को भी आज की भाषा के लहजे में नहीं रखेंगे तो न आज के तार्किक दिमाग को चैन मिलेगा और न आज के श्रद्धालु मन को शांति मिलेगी। स्वाभाविक ही है कि मनुष्य का रुझान हर पुरानी वस्तु या व्यक्ति के प्रति ज्यादा से ज्यादा मिथकीय और रहस्य से भरा हो जाता है।
आइंस्टीन ने एक बार महात्मा गांधी के बारे में कहाथा कि आनेवाली पीढ़ियाँ जब कभी गांधी के अद्भुत कार्यों के बारे में पढ़ेंगी तो उन्हें विश्वास ही नहीं होगा कि हाड़-मांस का एक कोई आदमी कभी इस धरती पर आया होगा। जब अपने समकालीन गांधी की विलक्षणता को देखकर आइंस्टीन ने उनके बारे में भविष्य के मिथकों की कल्पना कर ली थी तो उस कविता के बारे में जो आठ हजार साल पहले लिखी गई थी, अगर हमारी दृष्टि मिथक और रहस्य से सराबोर हो जाए तो क्या आश्चर्य !
इसलिए हमने वेदों को ईश्वर की वाणी कहने में अपनी श्रद्धा की इतिश्री प्राप्त कर ली। वेदों के एक विद्वान् व्याख्याकार हुए हैं- आचार्य सायण। उन्होंने चौदहवीं शदी में विजयनगर साम्राज्य के राजसी माहौल में रहकर वेदों की व्याख्या संस्कृत में लिखी। उनकी खूबी यह है कि वे अपनी बात किसी पर थोपते नहीं। वे व्याख्या इस तरह से करते हैं कि पढ़नेवाले को वेद को अपने हिसाब से समझने में मदद मिले ले। इतने खुले दिमागवाले सायण से भी यह कहे बिना नहीं रहा गया कि यस्य - इश्वसितं वेदाः, अर्थात् वेद ईश्वर की मानो साँस है। यह लिखकर वे कोई नई न नहीं कह रहे थे, वे केवल एक लंबी, सदियों की परंपरा को मानो नए सिरे चाँच रहे थे।
चूँकि वेद इतने पुराने हैं, इसलिए उनका अर्थ समझना भी आसान । वेदों की भाषा तब की यानी आठ हजार साल पहले की संस्कृत, उस भाषा का नही कह सकते .हजारों साल पहले का, उस कविता के विषय तब के जैसे कि के हो नहीं सकते थे। उन विषयों को पेश करने का सलीका तब का जैसा कि अजीब लग सकता है, उन विषयों के पाठकों की रुचियाँ तब की यानी आज आठ से पाँच हजार साल पहले की यानी उन तीन हजार सालों की जिस दौरान लिखे गए, जो आज हमें बीस हजार की संख्या में चार वेदों में प्राप्त होते हैं। वेदों में संकलित ये बीस हजार मंत्र इतने ज्यादा पुराने हैं, इसलिए हर युग में इन्हें अपनी तरह से समझने का प्रयास किया और सही अर्थ समझने का प्रयास किया।
ऐसी नवीनतम कोशिश महर्षि अरविंद ने की है, जिनका कहना है कि वेदों को समझने के लिए पहले हमें विचार की उस शुद्धता और विराटता को जो वैदिक मंत्रों के रचयिता ऋषियों यानी कवियों के पास थी, अन्यथा के अर्थ समझ नहीं पाएँगे। इससे पहले ऐसी कोशिश स्वामी दयानंद ने - बहुत पहले स्कंदस्वामी, वेंकटमाधव, उव्वट आदि ने भी वेदों के अर्थ का प्रयास किया। पाँच हजार साल पहले इस देश में महाभारत की लड़ाई भी और वेदों के मंत्रों के आखिरी हिस्से इस समय के आस-पास तक रहे। वेदों के इस आखिरी रचनाकाल के करीब हुए आचार्य यास्क ने वेदों की व्याख्या के अन्यान्य विधियां समझाई......!क्रमशः
कौटिल्य शास्त्री