बल बुद्धि विद्या देहु मोहि , हरहु कलेश विकार
राजेंद्र नाथ तिवारी
कौटिल्य फाउंडेशन इंडिया ने देश की वैचारिकी को समृद्ध व सशक्त बनाने हेतु अभियान आरंभ किया है। आज कौटिल्य की प्रासंगिता और बढ़ जाती है जब हमें और शक्ति का संकलन करना है ,यह शक्ति आएगी अपनी वैचारिकी व प्राचीन साहित्य से.आज देश को शक्ति की त्रिवेणी को स्मरण कर देश,समाज और पर्यावरण की रक्षा का संकल्प अपरिहार्य होगया है.पूर्वजों ने भारत माता की कल्पना करके बल, बुद्धि,विद्या तीनों का आह्वान किया है कौटिल्य संबंधी साहित्य सरकार अनिवार्य करे,जिससे चन्द्र गुप्त कैसे कौटिल्य गढ़ता है पता चल सके.
हर युग में घनानंद हुए हैं,आवश्यकता है वयम राष्ट्र जागृयाम पुरोहिता: की.
संघशक्ति की सदा ही प्रमुखता रही है. पर इस युग में तो उसका महत्त्व सर्वोपरि है। बुद्धिबल, धनबल, श्रमबल के चमत्कार इस संसार में बिखरे पड़े हैं। इन तीनों बलों का उपार्जन करने के लिये सरस्वती के रूप में अमि की पूजाची के रूप में धन की, दुर्गा के रूप में श्रम की पूजा-उपासना करते हैं, पर हम उस संघशक्ति का महत्त्व भुला देते हैं, जो सर्वोपरि ह
एकाकीपन में जड़ता और नीरसता है कोई परवहस स्थिति को पहुंचा हुआ व्यक्ति ही उसमें आनंद ले सकता है, सो भी तब, जब विश्वात्मा के साथ अपनी आत्मा को पिरोकर सूक्ष्म चेतनास्तर पर वसुनैच कुटुम्बकम् का रस पीने लगे। अन्यथा एकाकी जीवन बहुत ही विकृत एवं कष्टसाध्य बन जाता है। जेल में क्रूर कैदियों को सबसे बड़ी सजा 'काल कोठरी' की दी जाती है। उसे एक अलग कोठरी में बन्द रहना पड़ता है। काम कुछ नहीं करना पड़ता। यह एकाकीपन कैदी को इतना अखरता है कि उसे एक-एक दिन काटना पहाड़ की तरह कठिन हो जाता है। झुण्ड छोड़कर जो वन्यपशु अकेले रहने लगते हैं, वे बडे क्रूर प्रकृति के हो जाते हैं। अकारण पेड़ पौधों को तोड़ते हैं और जीवों पर आक्रमण करते हुए अपनी दुष्टता का प्रदर्शन करते रहते हैं।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। मनुष्यता का निखार सामूहिक जीवन में ही सम्भव है। सम्मिलित जीवन में एक उल्लास भरी शक्ति उत्पन्न होती है। उसी की उपलब्धि के लिये गृहस्थ लोग परिवार बसाते हैं, विरक्त लोग अखाड़े, आश्रम, मठ तथा सम्प्रदाय खड़े करते हैं। मेले-ठेलों में जाना हर दृष्टि से असुविधाजनक, कष्टकर एवं खर्चीला ही पड़ता है, फिर भी लोग बड़े चाव के साथ जाने की तैयारी करते हैं, क्योंकि जन संकुल वातावरण में एक ऐसा आनन्द रहता है, जिससे सहज ही बहुत आनन्द मिलता है। विवाह, बरातों में जाकर प्रसन्न होने का यही कारण है।
सम्मिलित जीवन में केवल प्रसन्नता ही नहीं मिलती, उसमें शक्ति भी सन्निहित है। एकाकी व्यक्ति कितना ही समर्थ क्यों न हो, कुछ बड़ा काम नहीं कर
सकता, पर बहुत से अल्प सामर्थ्यवान मिलकर बहुत बड़ा काम कर सकते हैं। टिश्रीदल फसलों और जंगलों को सफाचट कर देता है। चीटियों का एक छोटा दल हाथी की सैंड में प्रवेश कर गजराज को मृत्यु के मुख में पहुँचा देता है।
समूह की शक्ति असाधारण है। नव-निर्माण के लिये हमें इसी महाशक्ति को जागृत एवं प्रयुक्त करना पड़ेगा। एकाकी प्रयनों से इतना बड़ा महाअभियान ही समर्थ व्यक्ति क्यों न हो। कितना
भगन्नान राम को मनुष्य सहयोगी न मिले, तो रीछ उसके लिए ग्वाल-चाल का सहयोग लिया। महाभारत में वे अकेले भी लड़ सकते थे, पर पाण्डवों तथा उनकी छोटी सेना को संगठित करके ही उन्होंने उस कार्य को हाथ में लिया। शिवजी सर्व समर्थ हैं, पर अपने प्रयोजनों की पूर्ति वे अपने वीरभद्र, नन्दी, भूत, बेतालों की गण-सेना द्वारा ही कराते हैं। प्रजापति ने देवताओं की थोड़ी-थोड़ी शक्ति इकट्टी कर, उससे दुर्गा को उत्पन्न किया, जो मधु-कैटभ, महिषासुर, शुभ-निशुम्भका ससैन्य संहार करने में समर्थ हुई। संघशक्ति सर्वत्र ऐसे ही चमत्कार उत्पन्न करती है।
युगनिर्माण के लिये हमें सज्जनों की, धर्मनिष्ठ व्यक्तियों की शक्ति का एकीकरण करना पड़ेगा। वे आज बिखरे हुए हैं, इसीलिए दुर्बल पड़ रहे हैं, हार रहे हैं। असुरता से देवत्व की शक्ति कहीं अधिक है, पर वह हारती एक ही कारण से है कि वह संगठन की ओर उपेक्षा बरतती रहती है।
जब तक सज्जनों की संघशक्ति का सृजन न होगा, तब तक हमारी महान योजनायें कल्पना लोक में ही विचरण करती रहेंगी। देव प्रकृति के व्यक्ति यदि संगठित होकर सदुद्देश्य के लिए कदम बढ़ायें तो आश्चर्यजनक सफलता सुनिश्चित है। हमें यही करना होगा। हर देव प्रकृति के व्यक्ति को संगठन का महत्त्व समझाना होगा, उन्हें संघबद्ध होने के लिए आग्रह और अनुरोधपूर्वक तैयार करना होगा। उनकी सम्मिलित शक्ति को नवनिर्माण के लिए प्रयुक्त करना होगा। इस दिशा में जितनी सफलता मिलती जायेगी, युग परिवर्तन का पथ उतना ही प्रशस्त होता चला जायेगा।
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