जब पूरा वैदिक धर्म भिन्न-भिन्न मत-मतांतर में बिखरा हुआ था। वैदिक धर्म प्रायः विलुप्त हो गया था। आचार्य शंकर ने तत्कालीन धर्म के विकृत स्वरूप से भारतीय समाज को मुक्त किया और अखंड भारत में सनातन वैदिक धर्म की पुनः प्रतिष्ठा की। यद्यपि आचार्य शंकर के जन्म-समय के संबंध में विद्वानों में मतभेद है कुछ विद्वान इनका जन्म 788 ईस्वी में और कुछ विद्वान इनका जन्म 507 ईसा पूर्व मानते हैं।
आचार्य शंकर का जन्म, केरल राज्य के एक गांव कालाड़ी में, आलवाई नदी के किनारे प्रतिष्ठित नामपुद्रि ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम विशिष्टा देवी था। बचपन से वे धीर-गंभीर और कुशाग्र-बुद्धि थे। वे एक बार जो सुन लेते थे वह उन्हें कंठस्थ हो जाता था। उन्होंने अत्यंत अल्प अवस्था में ही मातृभाषा मलयालम में वेद-वेदांत, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि अनेक ग्रंथों के श्लोक दूसरों से सुनकर कंठस्थ कर लिया था। गुरुकुल में बालक शंकर अपनी विद्वता और कर्त्तव्य परायणता से सभी का मन मोह लेते। शीघ्र ही शंकर वेद, उपनिषद, पुराण, इतिहास, धर्मशास्त्र, न्याय, सांख्य, पातंजल, वैशेषिक आदि अनेक ग्रंथों में पारंगत हो गए। जो शिक्षा अन्य शिष्य 20 वर्ष में प्राप्त करते, बालक शंकर ने 2 वर्ष में ही पूर्ण कर लिया। गुरुकुल से वापस लौटने पर माता ने लोक परंपरा के अनुसार इनका विवाह निश्चित कर दिया परंतु बालक शंकर के भीतर सन्यास की तीव्र इच्छा पल रही थी। बालक शंकर के दृढ़ निश्चय के कारण, माता ने संन्यास लेने की अनुमति दे दी। केवल 8 वर्ष की उम्र में बालक शंकर ने संन्यास ले लिया और गुरु गोविंदपाद के सानिध्य में रहकर शीघ्र ही शंकर ने हठ योग, राजयोग और ज्ञान योग की समस्त सिद्धियां प्राप्त कर लिया।
अपने गुरु गोविंदपाद की आज्ञा के अनुसार आचार्य शंकर ने संपूर्ण भारत में वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा की शुरुआत काशी से प्रारंभ किया। प्राचीन काल से काशी, भारतीय सनातन ज्ञान और संस्कृति का केंद्र रही है। काशी में कई महीने तक रहकर आचार्य ने समाज में अद्वैत ब्रह्म-“ब्रम्ह सत्यम, जगत मिथ्या” का ज्ञान प्रसारित किया। आचार्य शंकर का स्पष्ट मत है कि परम ब्रह्म परमात्मा ही एकमात्र सृष्टिकर्ता है। वही एक सत्य स्वरूप है। वही परम तत्व है। वह परमात्मा सच्चिदानंद सदैव विद्यमान है। प्रकृति का निर्माण, संचालन और संहार भी वही करता है। उन्होंने “अहं ब्रह्मास्मि” अर्थात “ब्रह्म का बोध ही मुक्ति है” का उदघोष किया। आचार्य शंकर यद्यपि अद्वैतवाद के समर्थक हैं परंतु उन्होंने द्वैतवाद को भी पूर्ण समर्थन दिया है। साधारणतया लोगों की यह धारणा है कि आचार्य शंकर द्वैतवाद ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं परंतु आचार्य शंकर के जीवन तथा उनके द्वारा रचित विभिन्न ग्रंथों से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने ब्रह्म के सगुण (द्वैत) और निर्गुण (अद्वैत) दोनों भावों का समर्थन किया है। आचार्य शंकर पूर्णतया ईश्वर भक्त थे और विभिन्न देवी-देवताओं में उनका पूर्ण विश्वास था। आमजन ईश्वर के सगुण रूप को शीघ्रता से समझ सकते है। अतः आचार्य ने सगुण उपासना को भी महत्व दिया। इस हेतु उन्होंने कई प्रमुख तीर्थ स्थलों का पुनर्निर्माण कराया और खंडित मूर्तियों की पुनः प्राण प्रतिष्ठा की। साथ ही साथ इन मंदिरों में स्थापित देवी-देवताओं की उपासना के लिए अत्यंत श्रेष्ठ स्तुतियों की रचना किया।
आचार्य शंकर के जीवन में यात्राएं और लेखन साथ साथ चलते हैं। इन यात्राओ के दौरान उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य के साथ साथ कुल 22 ग्रंथों के भाष्य, 54 उपदेश ग्रंथ और 75 स्त्रोत्र लिखे। इस तरुण सन्यासी ने अखंड भारत की 3 बार पदयात्रा की। पवित्र केदारनाथ मे उन्होंने अपने शिष्यों को अंतिम उपदेश दिया और 32 वर्ष की आयु में ब्रह्मलीन हो गए। अत्यंत अल्प जीवन प्राप्त आचार्य शंकर के प्रति भारत, सदैव ऋणी रहेगा। भारत के पूर्व,पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में चार शंकराचार्य पीठ की स्थापना किया। यह पीठ चारों वेदों की प्रतिष्ठा के प्रतीक हैं। साथ ही साथ उन्होंने समाज में वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए दशनामी संन्यासी अखाड़ों की भी स्थापना किया। आम जनमानस की समझ के अनुसार उन्होंने पंचदेव पूजा को महत्व दिया। उन्होंने वर्णाश्रम धर्म की स्थापना कर समाज के सभी वर्गो को प्राचीन भारतीय वैदिक परंपरा से आच्छादित कर दिया और अखंड भारत को पुनः एक सूत्र में जोड़ दिया।
डॉ. कौशलेन्द्र विक्रम मिश्र