आज का विज्ञान ही कल का धर्म है.विज्ञान और धर्म परस्पर पूरक हैं.आज के विज्ञान ने अपनी सीमाओं और परिधि से निकलने की घोषणा कर दी है। अब धर्म की बारी है। अब देखना है कि धर्म ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की रीति-नीति को तोड़ पाता है या नहीं। आगे बढ़ने के लिए, पिछले स्थान से पैर उठाता है कि या नहीं। तर्क और प्रयोगों के महत्त्व को स्वीकार कर अपनी एकाँगिता-अपूर्णता को दूर करता है या नहीं? विज्ञान ने इस तथ्य को स्वीकारा और अपनाया है। अब धर्म और अध्यात्म को भी इस प्रकार के साहस और पुरुषार्थ का संचय करने के लिए हिचकिचाहट नहीं करनी चाहिए।इस सम्बन्ध में विज्ञान की पहल सराहनीय एवं अभिनन्दनीय है। उसने दुराग्रह नहीं अपनाया। सत्य के लिए अपने द्वार खुले रखे हैं। यदि आज कोई बात गलत निकली तो वह अपनी आज सुधारने के लिए तैयार है। उसका कथन है कि हम सत्य की राह के पथिक मात्र हैं। हठ करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि जो बात गलत साबित हुई है, उसे समय रहते सुधार-संवार लिया जाय। इस मान्यता से उसकी ईमानदारी साबित होती है। धर्म को भी अपनी उन प्राचीन वैदिक परम्पराओं का अनुसरण करना चाहिए। जिनमें तर्क एवं प्रयोगों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। ऐसा करने पर धार्मिक जगत् अपनी भ्रान्तियों एवं मूढ़ मान्यताओं से छुटकारा पा सकेगा।इस तरह विज्ञान भी धर्म की भावना, करुणा एवं संवेदना को अपना सके तो विनाश-विध्वंस की ओर बढ़ते उसके कदम मुड़कर पुनः सृजन की ओर चल पड़ेंगे। इन दोनों के मिलन-संगम में ही जीवन के विकास की समग्रता-पूर्णता समाहित है। इसी से आन्तरिक जीवन की प्रसन्नता तथा बाह्य जीवन में सौंदर्य झलक सकेगा।
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