मृत्यु को समर्पित एक बालक,जिससे यमराज भी सहमे थे.!संकलनकर्ता राजेन्द्र नाथ तिवारी

 *आजसे उपनिषदों पर आधारित आख्यानों को देने का लघु प्रयास है,पसंद आनेपर  प्रति क्रियाओं को सादर अपेक्षा

मृत्यु को समर्पित बालक


यमराज से सभी डरते हैं पर उस दिन यमराज एक बच्चें से डर हुए थे। वह कांप रहे थे। शरीर से फ्सीना छूट रहा था। यह अभिमान कि वह सर्वोपरि हैं, और किसी के भी प्राण ले सकते हैं, गायब।

उन्हें मरने का डर नहीं था। मर तो वह सकते नहीं। वह तो कालदेव है। साकार समय। उनके भीतर समस्त सृष्टि समाहित है। उन्हीें के भीतर हर वस्तु उत्पन्न होती है, विकसित होती है, रूप बदलती है और नष्ट हो कर उन्हीं के गर्म में समा जाती है। उनका रूप भी कितना विचित्र। कहने को पुरूष और चाहो तो नारी भी कह लो। इसीलिए तो कुछ लोग समय को पुरूष के रूप में नहीं नारी के रूप में, मातृदेवी के रूप में काल के स्थान पर काली में बदल लेते है। एक ही तो देवता है और कितने-कितने रूप घर लेता है-एकः सत् विप्राः बहुधा वदंति। तो वही दिन हैं, यम हैं। वही प्रहर हैं, याम हैं। वही रात हैं, यमी या यामा हैं। वैदित कवियों को दिल्लगी सूझी तो कहा यम यमी कालदेव के अर्ध नारीश्वर रूप के दो पक्ष, स्त्री-पुरूष नहीं है, अपितु भाई बहन है। एक ही सूर्य से तो दोनों उत्पन्न हैं और एक दूसरे के पीछे इस तरह पड़ें है जैसे एक कामासक्त हो कर दूसरे का पीछा कर रही हो। बहन भाई से साहचर्य की प्रार्थना कर रही हो और भाई लोक नियमों की अवज्ञा के डर से लगातार मना कर रहा हो। इसका उन्होंने खूब रस लिया।

विवस्वान सूर्य के पुत्र हैं। और एक तरह से स्वयं सूर्य भी। सूर्य क्या काल से बाहर है। आदित्य हैं वह। सबसे बड़े अत्ता। सबसे भूखे। सारा जगत उनका ओदन है। वह इतने भुक्खड़ हैं कि शब्दों को भी खा जाते है। उनके अर्थ तक को चबा जाते हैं। हर वस्तु को। अपार भूख! एक साथ समस्त ब्रह्मांड को निगलने पर जुटे हुए हैं और अनंत काल से यही क्रम चला आ रहा है पर भूख शांत होने को आ ही नहीं रही है। उनकी इस भूख को देख कर ही तो अर्जुन डर कर कांपने लगे थेः

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशंति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।

केचिद्विलग्ना दशनांतरेषु संदृश्यंते चूर्णितैः उत्तमांगैः।।

यथा प्रदीप्तं ज्वलन पतंगाः विशंति नाशाय समृद्ध वेगाः।

तथैव नाशाय विशंति लोकाः तवापि वक्त्राणि समृद्ध वेगाः

लेलिह्यसे ग्रसमानः समंतात् लोकान् समग्रान् वदनैः ज्वलद्भिः।

तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्रा प्रतपंति विष्णो।

उन्हें मृत्यु का क्या भय? उन्हें अपनी जान का तो कोई खतरा नहीं था। हो ही नहीं सकता था। जिस दिन वह घड़ी आएगी उस दिन भी वह अपने ही महाकाल रूप में लीन हो जाएंगे। प्रलय आ जाएगी। उनके अपनेही अदृश्य महाकटाह में सब कुछ मिलकर एक सार हो जाएगा।

उनको खतरा था अपने पुण्यों के क्षय का। यह प्राण जाने से अधिक बड़ा खतरा है। कौन नहीं जानता है कि पुण्य कमाने वाला आदमी बड़ा कमजोर होता है। वह डरता बड़ी आसानी से है। डरता नहीं, डर के भीतर ही वह जीता है। डर चमड़ी की तरह उसे कसे रहता है और चमड़ी की ही तरह सोते, बैठते, स्वप्न देखते, हर समय उसके साथ रहता है। यमराज तो धर्मराज है। भारतीय दंड संहिता सहित सारे यम-नियम, सारे कानून और सारी आचार संहिताएं उनही ही मेघा की उपज हैं। उनके बनाए और उनकी प्रेरणा से बने नियमों से विचलन का ही नाम तो पाप और अपराध है। चूंकि उनके पास पुण्यों के भंडार को छोड़ कर और कुछ हो ही नहीं सकता, इसलिए ऊपर की सारी बहादुरी के बावदूद वह भीतर से बहुत डरने वाले देवता हैं।

यमराज के डर की वजह यह थी कि यह बच्चा कोई ऐसा वैसा बच्चा नहीं था। यह एक ब्राह्मण का बच्चा था। वह तीन दिन पहले उनके यहां अतिथि बनकर आया था। जिस समय आया उस समय यमराज बेचारे घर से बाहर थे। घर पर होते तो उसका विधिवत् स्वागत सत्कार करते। नहीं थे, इसलिए यह कमी रह गई।

यूं देखें तो कमी रहनी नहीं चाहिए थी। घर था, तो घरवाली भी रही ही होगी। उनके अपने अमला और अफसर थे जो इतने अनुभवी और कार्यदक्ष थे कि लाखों साल से काम करते आ रहे थे, पर न तो उन्हें सेवानिवृत्त किया गया था, न ही उनका विभाग बदला गया था। उनके दंडघर थे जो हुक्म के इंतजार में खडे़ रहते थे। उनक अपना अभिलेखागार था जिसके मुख्य अभिलेखपाल चित्रगुप्त क दिमाग में इतने सारे सुपरकम्प्यूटर और सुपर सेंसिटिव कैमरे फिट थे कि वह एक साथ असंख्य प्राणियों के एक-एक काम का यहां तक कि उनके छिपे हुए इरादों और सोचे हुए विचारों का भी हिसाब रखते थे और कहीं कोई चुक नहीं होती थी। पर चित्रगुप्त महाशय के सुपर कम्प्यूटर और कैमरों में एक पूरे के पूरे बच्चे के धरती से गायब होने और ठीक यमराज के महल में पहुँच कर बिना कुछ खाए पिए बैठे रह जाने का अक्स तक नहीं आया था।

इनके रहते हुए यह चूक क्यों हो गई, यह पता नहीं चलता? संभव है उनके दूत भी वर्क टु रूल वाले रहे हों। सेवा की शर्तों में जो कार्य नहीं दर्ज है उसे करने को तैयार ही न हुए हों। आखिर दूत न्याय और नियम के महाप्रशासक यमराज के ठहरे। जबान पर पूरी नियमावाली हाजिर। हड़ताल पर भी रहे हो सकते है, नहीं तो यमराज के महल में अनधिकार प्रवेश के अपराध में बच्चे को यातनागृह में नहीं तो सुधारगृह में तो डाल ही चुके होते। हुआ चाहे जो हो पर इतना तय है कि उस बच्चे ने न तो खाना खाया था, न पानी पिया था। वह बिना आंख झपकाए, अपलक-अंतद्र उस यमराज की राह देखता रहा था जो किस्सागो को नामालूम कारणों से, नामालूम दिशा मे तीन दिन से गए हुए थे और अब लौटे थे। गलती समझ में आने के बाद वह बच्चे के सामने हाथ जोड़े, इतने घबराए हुए खडे़ थे कि जल्दबाजी में वह बोल पड़ता‘‘कान पकड़ो’’ तो कान भी पकड़ लेते।

यह तो सारी दुनिया जानती है कि ब्राह्मण कोई साधारण चीज नहीं होता। ऊपर से अतिथि बन कर आया हुआ। वह तो वैश्वानर स्वरूप है। साक्षात् आग। आग के रूप में ही वह किसी के घर में प्रवेश करता है। जैसे आग को पानी आदि से शांत किया जाता है उसी तरह अतिथि पर रूप आए ब्राह्मण को अघ्र्य-पाद्य से शांत करना होता है। शांत न किया गया तो वह गृहस्थ का सत्यानाश कर डालता है। यमराज ने अपने आपसे कहा ‘‘विवस्वान’’ यदि तू अपनी ख्ैर चाहता है तो जल्दी-जल्दी पांव पखारने का पानी ला। आचमन करा। मधुपर्क हाजिर कर। तू जानता नहीं कि यह अतिथि नहीं तेरी शामत आन पहुंची है। वैश्वानरः प्रविशति अतिथिः ब्राह्मणो गृहान। तस्यैतां शांतिं कुर्वंति हर वैवस्वतोदकम्। ब्राह्मण तो एक रात को भी किसी के घर में बिना भोजन के रह जाए तो उस उभागे की प्राप्त और काम्य वस्तुओं, उसके द्वारा किए गए यज्ञों, लोकोपकार के कार्यों से अर्जित समस्त पुण्यों और फलों को, उसके पुत्र उसकी पत्नी, उसक पशु उद्यान, सभी को नष्ट कर डालता है।’’

विवस्वान उघ्र्य पाद्य तो लाए पर बालक ने इन्कार कर दिया। उसे इसकी जरूरत नहीं थी। उसकी पीड़ा उसकी आंखों से प्रकट हो रही थी। संभव है किसी ने अज्ञान वश उसका अपमान भी कर दिया हो। ज्योतिषियों की तरह यमराज की भी यह कभी थी कि यदि विपदा किसी दूसरे पर आई हो तो वह किसी के मन बात जान सकते थे, पर यदि शामत अपने ऊपर आई हो तो वह किसी के मन की बात जान सकते थे, पर यदि शामत अपने ऊपर आई हो तो भकुआए से मुंह देखते रह जाते थे। यदि ऐसा न होता तो उन्होंने उसके अंतःकरण में प्रवेश करके देख लिया होता कि जिसे वह क्रोध समझ रहे हैं, वह आत्मग्लानि है। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि किस उपाय से इस ब्राह्मण बालक को प्रसन्न करें।

उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘बालब्रह्मचारी, आप हैं कौन?’’

लड़के ने व्यंग्य से मुस्कराते हुए कहा, ‘‘क्या यह भी बताना पड़ेगा?’’

लड़के ने तो यह सोच कर कहा था कि आप यमराज हैं। आप से क्या छिपा है। आप तो सब कुछ जानते है। पर यमराज का संदेह पक्का हो गया। सोचा, कुछ ज्यादे ही नाराज हो गया है, यह। बोले’’ आप ब्राहमण हैं, यह तो पता चल ही रहा है। ब्राह्मण को तो ब्रह्मतेज से कोई भी पहचान लेताहै। आप बालक हैं यह भी देख रहा हूं। यह भी जाता हूं कि ब्राह्मण के बालक को, आग की चिनगारी को और सांप के बच्चे को छोटा देख कर छोटा समझने वाला अपना ही सत्यानाश कर लेता है, इसलिए आप पूज्य हैं, यह भी जानता हूं। पर आप कहां से आए हैं, क्यों आए हैं, यह आप के श्री मुख से ही जानना चाहता हूं।’’ बालक कुछ सोचता रहा गया। वह अपनी व्यथा को शब्दों में बांध नही पा रहा था।

यमराज घबरागए। हाथ जोड़ कर खड़े हो गए ‘‘चूक तो बहुत बड़ी हो गई । तीन रात तक आप मेरे घर कुछ खाए-पिए बिना रह गए। जो हो गया उसे क्षमा करें। अब उन बीती हुई रातों के लिए तो कुछ और संभव नहीं है। इनके बदले में आप एक-एक रात के लिए एक-एक वरदान मांग लीजिए। अब अपना गुस्सा थुक कर यह तो बताइए कि आप का नाम क्या है, यहां कहां से और किस प्रयोजन से आना हुआ?’’

बालक ने कहा मैं बालक तो हूं ही, ऊपर से नादान भी हूं। मेरा नाम ही नचिकेता है। चेत और केत दोनोसे शून्य। न आंतरिक चेतना और लालसा, न अनुभवजन्य बाहरी ज्ञान। आपके आदेशों के अमल में हीला हवाला करने के लिए इस चित-कित को कट-पीस कर जो चिकित् मूल और चिकित्सा शास्त्र गढ़ा गया है, उससे भी शून्य, नहीं तो आपके घर आने से पहले किसी जुगत से वहीं कुछ समय और रूकने का तरीका निकाला होता। न-चिकेता। अनाड़ी भोलावसंत। हर बात पर चकित हो जाता हूं। चिकित्सा के स्थान पर विचिकित्सा! निश्चय के स्थान पर संदेह और बोध के स्थान पर प्रश्न! ढेर सारे प्रश्न ! मैं हूं बड़ा अभागा, महाराज। प्रश्न करने की इस आदत ने ही मेरी यह गति कर दी।

यमराज को बड़ी राहत मिली। यह तो अपनी ग्लानि से ही पीड़ित है। सोचने लगे, नाहक डर की तीन वरदान दे बैठा। जानता होता तो किसी और मौके के लिए बचा रखता। पर इस भाव को छिपाते हुए प्रकट रूप से वह सहानुभूति प्रकट करते रहे। बोले, ‘‘आप निःसंकोच अपनी कथा कहें। यदि आप अभागे हैं तो अभागे तो अक्सर बोलना सीखने से पहले ही मेरे लोक में आ जाते हैं। उनसे मेरा लंबा परिचय है।’’

फिर कुद रूक कर उन्होंने नचिकेता का मनोबल बढ़ाते हुए कहा, ‘‘और जो आप प्रश्न पूछने की बात कर रहे है, वह कुछ ठीक है, कुछ गलत। शिक्षा से आदमी का ज्ञान तो बढ़ता है, पर ज्ञानी माने जाने के साथ अज्ञानी समझे जाने का भय भी बढ़ता जाता है। इसलिए समझदार माना जाने वाला आदमी बहुत बड़ा मूर्ख भी होता है। वह इतना मूर्ख होता है कि सही सवाल भी नहीं कर सकता। उसे अपने को समझदार सिद्ध करने के लिए अ-ज्ञान और अप-ज्ञान दोनों के साथ समझौता करना पड़ता है। बहुत सी बाते गलत लगती हैं तो भी उनके विषय में न तो संदेह प्रकट कर पाता है न ही उनकी विरोध कर पाता है। आप को किसी तरह का ज्ञान नहीं हैं, आप बात-बात पर चकित और विस्मित ही होते रहते हैं और बात-बे-बात अपनी छोटी सी टांग को टूट-फूट का खतरा उठा कर भी अड़ा देते हैं, जिसे लोग आंख मूंद कर मान लेते हैं, उस पर कोई न कोई सवाल दाग देते हैं, यह आपकी मूर्खता का प्रमाण नहीं। सच कहिए तो आप इसलिए ही कुछ न जानते हुए भी परम बुद्धिमान हैं। इस पर ग्लानि प्रकट करना व्यर्थ है। आप निश्चित और निर्विगल हो कर अपनी कहानी सुनाएं। आप के माता-पिता कहां है, कौन हैं, और उन्होंने आप को मेरे पास आने कैसे दिया, क्योंकि मैंने तो आप को निमंत्रण दे कर बुलाया नहीं था। ब्राह्मण होने के नाते आपका कोई अपघात भी नहीं कर सकता था। फिर आप देशों में देश भारत देश से आए हैं, जहां बच्चें कोई काम माता की इच्छा और पिता की आज्ञा क बिना नहीं करते, इसलिए सदेह आए हैं तो उनकी इच्छा और आदेश से ही आए होंगे।’’

नचिकेता ने कहा, ‘‘मुझे ग्लानि इसी बात को लेकर है, यमराज, कि मुझे पिता जी से उनकी आज्ञा के लिए अनुरोध नहीं करना पड़ा। उन्होंने खुद मुझ आप को सौंप दिया। धक्का दे कर आपके लोक में भेज दिया। पिता लोग तो आप जानते ही है कितने कठोर होते हैं। झक सवार हो तो अपने बच्चों की आंखे तक फोड़ देते हैं।’’

‘‘ उस वैदिक पिता की बात कर रहे हे जिसका बच्चा दूसरे बच्चों के साथ खेलने में लग गया था और इसी बीच जंगल से भेड़िया निकल कर उसकी भेडों को खा गया था? ऐसे नायाक बच्चें की आंखे फोड़ कर पिता ने धर्म का पालन ही किया था। पर वह सतयुग की बात है, नचिकेता, जब धम चतुष्पाद था। इस द्वापर युग में उतनी धर्म बुद्धि कहां रह गई है, लोगों में । धर्म निरंतर क्षय हो रहा है। कलिकाल का प्रकोप होने पर तो मां-बाप बच्चों के प्यार में पागल हो कर ऐस-ऐसे काम करने लगेंगे जिन्हें खुद अपने और मां बाप तक के लिए न किया होगा। बच्चे बोलना सीखने के बाद से उन्हें बताना शुरू करेंगे कि उन्हें बोलना कैसे चाहिए और करना क्या चाहिए।’’

नचिकेता बोला, ‘‘मै केवल उस पिता की बात नहीं कर रहा हूं, यमराज। सारे पिता बच्चों के सामने पिता पहले और मनुष्य बाद में होते हैं।’’

यमराज स्वयं चकित थे। उन्होेंने बड़े प्यार से कहा, ‘‘यह भाषा तुमने से सीख ली नचिकेता। इसे तो मैंने कलियुग में प्रचलित करने के लिए व्याकरण और कोश सहित तैयार करके छिपा कर रखा था। तुम मेरे ग्रंथागार से इस बीच वही पुस्तक तो निकाल कर नहीं पढ़ते रहे?

‘‘मैं पढ़ना लिखना जानता ही नहीं। फिर आपके यहां जो ब्राह्मी लिपि प्रचलित है वह तो आदमी से पढ़ी ही नहीं जाती। मैने तो जो जी में आया कह दिया। यदि कलिकाल ऐसा युग है जिसमें बच्चें माता-पिता पर उसी तरह शासन करेंगे जैसे आज के माता-पिता बच्चों पर करते हैं, यदि कलिकाल में सारे अधिकार बच्चों के होंगे और सारे कर्तव्य माता-पिता के, तो आप से पहला वरदान मैं यही मांगना चाहूंगा कि आप कलिकाल को तुरंत धरती पर उतार दीजिए और फिर मुझे मेरे पिता के पास वापस भेज दीजिए। इस द्वापर में तो सारे अधिकार पिता के होते हैं और सारे कर्तव्य पुत्र के। पिता तो उन्हें पैदा करके छोड़ देता है और बच्चा जब-तब तो सुनते हैं मिट्टी खा कर पल बढ़ जाता है। पिता फसल की तरह बच्चे उगाता है और फसल की तरह ही भगवान भरोसे पलने बढ़ने को छोड़ देता है जिसके बच्चे मिट्टी खा कर पलने लाचार होते है वह भी सौ-सौ बच्चे पैदा कर डालता है। पिता जाति के इस द्वापर कालीन गण से मैं बहुत खिन्न हूं। अब यही देखिए न मेरे पिता ने अपनी कामना पूर्ति के लिए विश्वजित यज्ञ किया और सारा धन, अपना सब कुछ दान में दे दिया।’’

‘‘ यह युगर्धम की बात है, नचिकेता। तुम द्वापर में कलियुग के व्यवहार की तो आशा नहीं कर सकते।

नचिकेता कलियुग की महिमा सुनकर अड़ गया, ‘‘यदि ऐसा है तो आप आज ही, इसी समय कलयुग को बुलाएं और फिर मुझे अपने पिता के पास लौटाएं। तब मैं पूछता हूं उनसे कि आप ने अपने लिए कुछ भी किया हो या नहीं, यह बताइए कि मेरे लिए क्या किया है।

‘‘तुम्हारी जबान बहुत चलती है, नचिकेता। पिता को क्रोध तो आना ही था। तु कलियुग को इसी समय उतारने की बात तो रहे हो पर यह नहीं जानते कि उससे तुम्हे कितना बड़ा नुकसान होगा?’’

नचिकेता चैंका, ‘‘नुकसान होगा? बच्चों का भी कोई नुकसान होगा, कलियुग में?’’

‘‘बच्चों का होगा या नहीं, तुम्हारा तो होगा ही। कलियुग में लोग मंच पर खड़े होकर, उच्चैः श्रवा यंत्र पर गर्जना करते हुए लाखों के बीच, लाखों बार, जिन चीजों का वायदा करेंगे, जिन्हें पूरा करने की कसमें लिख-सिख कर खाएंगे, उनको, काम संवरते ही, इस तरह भूल जाएंगे कि याद दिलाने पर भी याद नहीं कर पाएंगे। अब यदि मैंने कलिकाल को अभी ला दिया तो कलिधर्म के तहाजे से मैं अपने दिए हुए वरदानों को तो पूरा करने से रहा। तुम्हारे सारे मंसूबे धरे-के-धरे रह जाएंगे। अब बोलो क्या मंजूर है?’’

नचिकेता धर्मसंकट में पड़ गया। बहुत सोचने के बाद बोला, ‘‘ऐसी बात है तो द्वापर को चालू रहने दीजिए।

‘‘ठीक है।’’ यमराज बोले, ‘‘पहले तुम यह बताओ कि पिता ने तुम्हें मेरे पास भेजा क्यों?’’

नचिकेता ने ब्राह्मण होते हुए भी यमराजके सम्मुख हाथ जोड़ दिए ‘‘यही बात तो मेरी समझ में नहीं आती? मैं भी तभी से इसी उधेड़ बुन में पड़ा हुआ हूं। आप देख ही रहे हैं कि मैं बच्चा हूं और अक्ल भी बच्चों जैसी है, पर अपनी उम्र के बच्चों को देखते हुए मैं बहुत नालायक भी नहीं हूं। अधिकांश लड़कों से मैं आगे था, और कुछ से उन्नीस भले पड़ता रहा हूं पर अठारह नहीं पड़ता था। मैंने द्वापर मे ंभी पित लोगों को एक-से-एक नालायक बच्चों को पलने बढ़ने की छूट देते देखा है, फिर पिता जीत ने मुझे आपके पास क्यों भेजा, यह समझ में नहीं आता।’’

यमराज बोले, ‘‘देखो, द्वापर का यह भी एक फायदा है। लोगों को मेरे घर का पता मालूम है। जब जी में आया, मुंह उठाया और चले आए। मैंने कहा, वापस, जाओ, तो लौट गए। कलियुग में तो डाकियों को भी मेरा पता नहीं मालूम होगा। मेरे घर के रास्ते के नाम पर अधिक से अधिक लोग सरकारी अस्पतालों तक पहुंचेंगे। आगे का रास्ता कैसे पर करेंगे यह तो मेेडिकल सुपरिंटेंडेंट को भी मालूम न होगा। खैर, ऐसा लगता है कि तुम अपनी दास्तान का कुछ हिस्सा छिपा रहे हो। उन्होंने किन परिस्थियिों में यह बात कही थी, क्या इसे बयान कर सकोगे?’’

‘‘मेरे खानदान को तो आप जानते ही है। मैं बाश्र्रवा का पोता और उद्दालक का पुत्र हूं। गौतम ऋषि के वंशधर हैं हम लोग, यह तो आपको पता हो ही गया होगा। वाजश्र्रवा से यह भी पता चल गया होगा कि हमारा खानदान अपनी दौलत के लिए भी मशहूर रहा है और न वै ब्राह्मणाय श्री रमते जैसे आदर्शो में हम विश्वास नहीं करते। जैसे मैंने कहा, मेरे पिता ने अपनी किसी कामना की पूर्ति के एि विश्वजित यज्ञ किया और उसमें अपना सब कुछ दान कर दिया। दक्षिणा में उन्होंने बूढ़ी गायों तक को दान कर दिया। मेरे लिए कुछ बचा कर नहीं रखा, इसका तो मुझे मलाल धरती पर रहते हो ही नहीं सकता था, क्योंकि वहां जब तक आपका द्वापर चलेगा तब तक बच्चें अपने अधिकारों के मामले में अपने मुंह को सीलबंद किए रहेंगे। पर जब उन गायों को ले जाया जा रहा था तो मुझे यह बात बड़ी अटपटी लगी कि इन बूढ़ी गायों को जिन्होंने जितना चारा खाना थ खा लिया, जिनता दूध देना था, दे लिया जितने थे, जन चुकीं, किसी को दान में क्यों गया? इन्होंने अपने जीवन काल में पिता जी की जो सेवा की है उसके बदले इनकी मृत्यु पर्यंत सेवा होनी चाहिए थी। मुझे और कुछ भले न मालूम रहा हो पर यह मालूम था कि ऐसी गायों का दान करने से मनुष्य नकर में जाता है। मेरी समझ में यह भी नहीं आर रहा था कि उन्हें ले जाने वाले उनका क्या उपयोग करेंगे? अब यही सवाल मैंने पिता जी से कर दिया। बहुत सोचने विचारने के बाद अब इस नतीजे पर पहुँचा हूं कि मुझसे यहीं कहीं चूक हो गई।

यमराज हंसने लगे। कहा, ‘‘क्या तुम्हें यह भी हीं मालूम था कि उनका क्या होना था?’’

‘‘यज्ञ के समय जो कुछ देखा था उससे मैं इस बात का कुछ-कुछ अनुमान लगा सकता था कि इनको ले जाने वाले इन निरीह पशुओं के प्रति अपना प्रेम तरह प्रकट करेंगे। उस परिणाति की कल्पना करके मेरा मन विगलित हो गया था। तभी तो मुंह से वह कठोर वाक्य निकल गया था।

‘‘फिर मैंने सोचा यदि पिता अपना सब कुछ दान में देने का ही संकल्प कर चुके हैं और इस मामले में उन्होंने उन बेचारी गायों पर भी दया नहीं दिखाई, जिन्होंने उन्हें अपने जीवन भर दूध और बछड़े दिए थे, तो वह मुझे भी किसी को अवश्य दे देंगे। मेरा तो उनके ऊपर कोई उपकार भी नहीं है। किसे देंगे, यह तय नहीं कर पा रहा था, सो पूछ बैठा, ‘आप मुझे किसे देंगे?

‘‘पिता मेरे पहले प्रश्न से ही खिन्न हो चुके थे। अब दूसरा प्रश्न और भी खिझाने वाला था, फिर भी चुप रह गए। पर मैं भी कुछ जिद पर आ गया था। दुबारा पूछा बैठा, ‘किसे देंगे मुझे, बताइए तो सही?

‘‘पिता जी फिर भी अनसुनी कर गए। उन्हें शायद स्वयं भी ग्लानि हो रही थी अपनी धर्म दृष्टि पर। यह कैसा यज्ञ और पुण्य। इन बूढ़ी गायों के इस करूण अंत से कौन सा पुण्य संभव है? अब मैंने तीसरी बार वही प्रश्न दुहराया। वह क्रोध में आ गए और कहा, ‘जा मैं तुझे मृत्यु को देता हूँ।’’

‘‘और फिर तुम उठे और मेरे घर के लिए रवाना हो गए? है न! तुम्हें मेरे यहां आते हुए डर नहीं लगा?

आप के यहां आते समय किस को डर नहीं लगता, यमदेव! पर पिता जी का क्रोध देखकर मुझे उनसे आपसे भी अधिक डर लग रहा था। सच, मुझे मरने से उतना डर नहीं लगा, जितना पिता के रोष के कारण। लगा, धर्म और पुण्य के आगे उनके मन में मेरे जीवन की कोई कीमत ही नहीं। आप तो जानते है धर्म और पुण्य के लोभ में लोग अपने बच्चें को आरे से चीर भी डालते है।’’

‘‘ तुम अपने पिता के प्रति कुछ अधिक कठोर हो रहे हो। यह सच है कि क्रोध में यह बात उनके मुंह से निकल गई थी। होनी इसी को कहते है। पर तुम यह क्यों नहीं सोचते कि जिस पिता को तुम्हें आरे से चीरने तक का अधिकार था उसने इस अधिकार का प्रयोग न करके तुम्हारे ऊपर कितना बड़ा अहसान किया है। तुमने खुद अपने हठ के कारण ही अपनी मौत बुलाई है।’’ यमराज ने नचिकेता को को यमराज की तरह समझाया।

‘‘यदि ऐसी बात है तो वह मुझे आप के घर का रास्ता पकड़ता देख कर रोक तो सकते थे।’’

‘‘ यह सब कलिकाल में होगा जब लोग सोच कर कही और असावधानी में मुंह से निकल गई बातों में से पहली को महत्व देंगे। द्वापर में तो सोच विचार कर कही हुई बात के पालन में कुछ उन्नीस-बीस रह भी जाए तो उतना हरज नहीं समझा जाता पर बिना सोचे-विचारे कोई बात मुंह से निकल जाए तो उसके पालन में आना कानी नहीं की जाती। लोग सपने में दिए गए वचन को पूरा करने क लिए राज पाट ही ही नहीं, बीबी बच्चे तक को बेचने और स्वयं डोम की सेवा करने को तैयार हो जाते है। इसके फायदे भी घर आने से कैसे रोकते। यह अनुरोध तो किसी और को करना चाहिए था।’’

‘‘नहीं यमदेव। मुझे सारी खोट उनके जीवन-दर्शन में दिखाई देता है। जब कुछ लोगों ने कहा कि वह मुझे रोक लें तो बोले, जिंदगी का क्या है। आदमी तो फसलों की तरह पैदा होता है, बढ़ता है, एक पक कर तैयार होता है और फिर बीज बन कर झड़ जाता है। उसका शेष अंश सड़गल कर नष्ट हो जाता है और बीज पुनः उचित ऋतु काल में सस्य बन कर लहराने लगता है। सस्यं इव जायते पुनः। तो बच्चे का क्या है। जब जी में आएगा और पैदा कर लूंगा, पर पुण्य क्षीण् हो गया तो कहां से लाऊंगा। सो मरना जीना तो लगा ही रहता है। इतना बड़ा यज्ञ करके जो यह सारा पुण्य कमाया है उसे केवल लड़के की जान बचाने के लिए नष्ट होने नहीं दूंगा। अपना वचन निभाने के लिए पहले लोगों ने जैसा आचरण किया है वैसा ही मैं भी करूंगा। इसलिए आप यदि मुझे वापस भेजने पर उतर ही आए हैं तो मुझे पहले वर के रूप में यही वर दीजिए कि वापस लौटने पर पिता जी का क्रोध शांत हो जाए और वह मुण्से प्रेम से बातें करें।’’ उस युग को देखते हुए यह कितना कठिन पर मांगा था नचिकेता ने। वह संशय में पड़ा हुआ था कि पता नहीं विवस्वान यह वर देंगे भी या नहीं।

विवस्वान ने नचिकेता के संशय को दूर करते हुए कहा, ‘‘ऐसा ही होगा। तुम्हें मृत्यु के मुह से छूट कर वापस लौटा हुआ देख कर तुम्हारे पिता मेरी प्रेरणा से प्रसन्न हो जाएंगे और जिंदगी भर चैन की नींद सोएंगे।’’ जिसका मतलब यह भी रहा हो सकता है। कि मेरे इस वरदान का लाभ उठा कर तुम भी उन्हें तंग नहीं करोगे।

प्राचीन काल में जो पारिवारिक संबंध नियत किए गए थे उनमें कुछ खास बातें जान लेने के बाद लड़का अपने पिता का पिता हो जाता था-कविर्यः पुत्रः स ईंमाचिकेत यस्ता विजानात् स पितुः पितासत्। वेद का वाक्य है। गलत तो हो नहीं सकता। जिन लोगों को इस बात की जानकारी है कि पश्चिम वालों ने वेदों से क्या-क्या चुराया वे शायद यह भी बताएंगे कि अंग्रेजी का एक मुहावरा इसी का अनुवाद करके गढ़ लिया गया। सो, मूल और अनुवाद दोनों की कसौटी पर कसे जाने पर भी नचिकेता खरा तो उतर ही सकता है।

यमलोक आते समय रास्ते में वह लगातार सोचता रहा कि पिता जी अपने यज्ञ से क्या पाना चाहते है जिसके लोभ में उन्होंने अपने लड़के तक को यमलोक भेजना कबूल कर लिया। विचारों की दुनिया में एक साथ रास्ते के दोनों किनारों पर चना जा सकता है और नचिकेता भी इसी तरह चल रहा था। कभी तो वह सोचता उसके पिता बहुत क्रूर और स्वार्थी हैं, और कभी सोचता, वह क्रुर सोचता, वह क्रूर और स्वार्थी होते हुए भी, हैं तो पिता ही। संभव है यमलोक भेजने में उन्होंने पुत्र का कोई हित भी सोच लिया हो।

वह यह तो जानता था कि यज्ञ, दान और पुण्य करने से आदमी स्वर्ग को जाता है पर तब तक वह यह नहीं जानता था कि स्वर्ग है कहां। यमलोक में पहुंच कर वह विवस्वान के महल का पता लगाता भटक रहा था, उस समय उसे ऐसे कारागारों के पास से भी गुजरना हुआ जहां से लगातार चीख-चीत्कार की आवाजें आ रही थी और ऐसे अड्डों से भी गुजरने का मौका मिला जहां से रोशनी, सुगंध, नाच और गाने और कहकड़े फूटते रहते थे। उसे यमलोक की अच्छी जानकारी नहीं 

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